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Showing posts from April, 2011

मोबाइल

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अब भी करता हूं घर पे फोन मगर पर वो आवाज़ अब नहीं आती लगता है कितने ज़माने बीते होता था रोज़ फोन पर अक्सर मेरे कुछ बोलने से पहले ही कहती थीं खुश रहो सदा बेटा आज आफिस से देर लौटे हो तुम को तो भूख लगी होगी बहुत जाओ पहले ज़रा सा कुछ खा लो फिर थोड़ी देर में बातें करना सोचता हूं जो मां की बातों को आंख में तैर सी जाती है नमी आज मैं फिर से देर लौटा हूं और हाथों में लेके बैठा हूं  अपना तन्हा सा एक मोबाइल मां तेरा फोन क्यों नहीं आता..?

प्रेम जो सच्चा था

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पल दो पल रंग करके तुमने, प्रिय कैसा अभिसार किया । सहसा विमुख हो गई फिर तुम, ऐसा विस्मित प्यार किया । सहज प्रेम की सहज विवशता, सहज निमंत्रण की परवशता, तपते अधरों का रस पीकर, मधुकर जीवन वार दिया । आलिंगन को तृप्ति ना मिली, तृप्ति को अभिव्यक्ति ना मिली, क्षण भंगुर से इस जीवन में , ये कैसा अतिभार लिया । असहज और चकित सा यौवन, परिचित किंतु अपरिचित सा मन, नर्म गुलाबी से कपोल पर, अधरों ने अतिचार किया । विस्मय की यह कैसी सज्जा, प्रेम पथिक से कैसी लज्जा, मैं से तुम तक,तुम से हम तक प्रेम उद्यान विहार किया ।