प्रेम जो सच्चा था



पल दो पल रंग करके तुमने,

प्रिय कैसा अभिसार किया ।

सहसा विमुख हो गई फिर तुम,

ऐसा विस्मित प्यार किया ।


सहज प्रेम की सहज विवशता,

सहज निमंत्रण की परवशता,

तपते अधरों का रस पीकर,

मधुकर जीवन वार दिया ।


आलिंगन को तृप्ति ना मिली,

तृप्ति को अभिव्यक्ति ना मिली,

क्षण भंगुर से इस जीवन में ,

ये कैसा अतिभार लिया ।


असहज और चकित सा यौवन,

परिचित किंतु अपरिचित सा मन,

नर्म गुलाबी से कपोल पर,

अधरों ने अतिचार किया ।


विस्मय की यह कैसी सज्जा,

प्रेम पथिक से कैसी लज्जा,

मैं से तुम तक,तुम से हम तक

प्रेम उद्यान विहार किया ।

Comments

  1. bahut hi bhavpurna rachna hai sir...nice

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  2. मन भावुकता से भर जाये,
    और नहीं कुछ समझ में आये,
    तो ऐसी ही गति होती है...
    अच्छी अभिव्यक्ति है संयोग की

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