ज़ख्म
बहुत दिनों से कोई ज़ख्म
मेरे दिल के किसी कोने में
रह-रह के रिसता है
दर्द ने ली है पनाह
आंसुओं के समंदर के किनारे
सोचता हूं
मगर अब सोच नहीं पाता
वक्त की किताब के
सारे पन्ने उघड़े हैं
बिखर रहे हैं
हालातों की आंधी में
एक मै था
जो बिखर रहा है
धीरे-धीरे
ये मेरा विस्तार है....
या खोता जा रहा हूं
खुद को मैं..
दर्द ने ली है पनाह
ReplyDeleteआँसुओं के समंदर के किनारे
वाऽहऽऽ…!!!!! भावमय करते शब्द
शुक्रिया आपका...
Deleteवाह! बहुत ख़ूब..
ReplyDeleteआभार अमृता जी...
Delete