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Showing posts from 2013

चाक पर ज़िंदगी.....

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चाक पर चाक होती रही ज़िंदगी रौशनी को तरसती रही ज़िंदगी। कितने दीपक तराशे इन्हीं हाथ से, कितने सपने बुने थे इसी चाक से, गोल पृथ्वी सा ये चाक चलता रहा, गुम हुई हर लकीरें सभी हाथ से, चाक है गोल और गोल हैं रोटियां फिर भी भूखी तड़पती रही ज़िंदगी। अब के रम्मो की गुड़िया का वादा भी है और बड़कू को देना पटाखा भी है इस दिवाली पे अम्मा की साड़ी नई और बीवी का लाना परांदा भी है, पर पसीने की कीमत कहां कोई दे बेवजह ख्वाब बुनती रही ज़िंदगी। हां उजाले की खातिर अंधेरा लिए आंख में झिलमिलाता सवेरा लिए चाक यूं ही लगातार चलता रहा सीने पर उंगलियों का बसेरा लिए ख्वाब पलते रहे, ख्वाब मरते रहे, सांस दर सांस पिसती रही ज़िंदगी।

मां सरयू के नाम एक पाती...

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जब भी घर जाऊंगा इक काम करके आऊंगा कुछ उसूलों को मैं सरयू में बहा आऊंगा। कहते हैं सरयू में श्रीराम ने त्यागा था शरीर मैं भी उकताए हुए स्वप्न को तज आऊंगा।

दिल..

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दर्द गुस्ताख हुआ जाता है... बात सुनता नहीं मेरी कोई. . नन्हें बच्चे की तरह ज़िद्दी है करवटें रात भर नहीं सोई

तुम ही तुम..

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वो एक शाम  समंदर के किनारे तुम्हारे करीब कुछ पलों में सिमट गई थी कहीं आज फिर दिल में तमन्ना उठी वो एक शाम  फिर आंखों में सज़ा रखी है बीते लम्हों को कुरेदा फिर से हाथ में आईं मेरे दो बातें एक अफसोस  जब बिछड़ा था समंदर से मैं एक तसल्ली  कि मेरे पास तुम हो

ज़ख्म

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बहुत दिनों से कोई ज़ख्म मेरे दिल के किसी कोने में रह-रह के रिसता है दर्द ने ली है पनाह आंसुओं के समंदर के किनारे सोचता हूं  मगर अब सोच नहीं पाता वक्त की किताब के सारे पन्ने उघड़े हैं बिखर रहे हैं हालातों की आंधी में एक मै था जो बिखर रहा है  धीरे-धीरे ये मेरा विस्तार है.... या खोता जा रहा हूं  खुद को मैं..

सांस

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आरजू लम्हों की बेरंग किताब जुस्तजू सांसों का उल्टा हिसाब ज़िंदगी इब्तिदा थी ख्वाबों की मौत थी असलियत का हिजाब

मोहब्बत के नाम एक पाती

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मोहब्बत वक्त के हाथों कभी नापा नहीं करते.. ये दिल की वादियों में ही पनपनी..ख़त्म होती है..

जो साथ छोड़कर भी साथ हैं...

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कभी तो आसमां से उतरो भी.. थाम लो फिर से मेरे हाथों को ज़िंदगी की तमाम मुश्किल में फिर बचा लो सुनहरे वादों को..

मैं....

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हंसी तो जिल्द है मेरे उदास चेहरे की.. ना होती ये तो लोग जाने क्या समझ लेते..

सच

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ज़िंदगी एक नज़्म है प्यारे, मायने जिसका कुछ नहीं होता.. धड़कनों का तो ठौर है दिल में..मौत का आशियां नहीं होता..

हर लोक में..एक सच

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देख दर्पण तिमिर फूट कर रो पड़ा, और बोला दबे स्वर में ये क्या हुआ, मैंने क्या कुछ ना समझा था खुद को मगर, एक मैं था विवश कांच में खो पड़ा। रो पड़ी वेदन अश्रु बन कर तभी, घाव सब खुल गए चीर करके वसन, देखते-देखते क्या से क्या हो गया, हिचकियां ले के सांसों ने मांगा कफ़न। एक कोने में मैं मौन साधक बना, पहले मन में हंसा और फिर रो पड़ा। जैसे पागल बना विश्व फिरता रहा, पत्थरों को भी छोड़ा नहीं भूल से, हर जगह सिर झुका करके पूजन किया, खुश किया देवता को कभी फूल से। किन्तु अपनी विवशता पे वो देवता, दम्भ झूठा सजाए हुए रो पड़ा। जब कभी धूप आंगन में उतरी नहीं, बदलियां झूम कर छायीं आकाश में, और उन्मुक्त जीवन का प्रतिबिम्ब बन, प्रेम की चाह उतरी हर इस सांस में। एक कोने में मैं दीप बनकर प्रिये, खुद जलाकर शलभ फूट कर रो पड़ा। यूं हृदय में कोई पीर उठती नहीं, किन्तु पीड़ा समेटे हुए जब गगन, यूं फफक रो पड़ा बीच आषाढ़ में, और सांसे लिए रोक,ठिठका पवन, मैं ‘ मधुर ’ अनकहा दर्द सहते हुए, हिचकियां ले के स्तब्ध सा रो पड़ा।

अधूरे रिश्ते या अधूरी बातें

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रिश्तों में अधूरापन जैसा कुछ हो नहीं सकता अधूरा है अगर कुछ भी तो बातें हैं, बहुत सी अनकही ऐसी जो लब पे आते-आते ही सहम कर के, ठिठक कर अपनी सांसें रोक लेती हैं ये वो बातें हैं जो माकूल रिश्ते को अधूरा छोड़ जाती हैं