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Showing posts from April, 2014

तुम होतीं तो ऐसा होता...

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दीप पर्व पर तुम होतीं तो, जगमग ये दीवाली होती, मेरे आंगन में रहती तो, हर मुस्कान निराली होती। नियति का ये चक्र अनोखा, मुझको हर धोखे पर धोखा, तुमको खोया तब जाना है, क्यूं आखों ने आंसू सोखा। एक बार सपनों में आती, हर दिन रात दिवाली होती। हर आंसू से दिया जलाऊं, हर पीड़ा से गीत रचाऊं, मां मेरे जीवन के मग में, तुम आओ मैं दीप जलाऊं। जाने ही किस लोक गई तुम, अब बेकार दिवाली होती। दीप पर्व पर तुम होतीं तो, जगमग ये दीवाली होती।

दो बरस ज़िंदगी के...

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दो बरस ज़िंदगी के दामन में कितने बेहतर रहे हसीन रहे वक्त का कुछ पता चला ही नहीं मेरी आंखों के अधूरे सपने तुम्हारी आंख के कासिद निकले मेरी हर सोच मुकम्मल तुमसे मेरी हसरत को अब तो पर निकले ज़िंदगी इतनी तो आसां ना थी शुक्र कि तुम ही रहनुमां निकले..

मोहब्बत चीज़ क्या है...

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इबादत..इब्तिदा...इल्ज़ाम या रब, मोहब्बत में जमाख़ोरी है या रब। बहुत ही मुख्तलिफ़ अंदाज़ अपना, ना अपना कोई, बेगाना है या रब। अभी भी ढूंढते हैं उसको अक्सर, मिला था ख़्वाब में हौले से या रब। मिलावट इश्क में हरगिज नहीं की, वो मुझसे रूठ कर बैठा है या रब। मनाने, रुठने में क्या मुनासिब, जो मेरा था, वो अब है ग़ैर या रब। 'मधुर' की आंख में ठहरा समंदर, उसे अब चांद की हो दीद या रब।

माज़ी...

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आरजू लम्हों की बेरंग किताब, जुस्तजू सांसों का उल्टा हिसाब, ज़िंदगी इब्तिदा थी ख्वाबों की, मौत थी असलियत का हिजाब। ****** मौत से जब भी कभी डर सा लगा है दोस्तों, कब्र अपनी नाप के हर रोज़ आ जाता हूं मैं। ****** दर्द के दश्त में बेजान सा चेहरा लेकर, कौन घर में मेरे आया मेरा चेहरा लेकर। ****** मैं हज़ारों बार खुशियों के बाज़ारों में बिका, दर्द के बेजान बुत पर और बोली मत लगा। ऐ सबा हालात पर मेरे अभी ना मुस्करा, मैं बहुत टूटा हूं..दिल पर और नश्तर मत लगा। ****** मैं संबंधों की छाया में हां अक्सर यूं ही छला गया, दे स्नेह निमंत्रण थोड़ा सा हर दीप मुझे ही जला गया। ****** तमाम उम्र हादसों के शहर में गुज़री, कहीं पे उनके फ़साने हों ज़रूरी तो नहीं। ****** यूं पलट कर मुस्करा देना वो बार-बार, मर जाएंगे, इतना बता मरना है कितनी बार। ****** आंसू के आबरू की कैसे करें हिफाज़त, वो ही खुशी या ग़म में बेघर हुआ हमेशा।

बिखरे मोती..

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तुमसे अच्छी तुम्हारी यादें हैं, कम से कम साथ मेरे रहती हैं। ****** सोचता हूं मैं कुछ कहूं खुद से, जाने क्यूं बेक़रार सा दिल है। ****** जाने क्यूं आइने ने ये पूछा, तुम्हारे पास है बस इक चेहरा, मैं लाजवाब रहा क्या कहता, वक्त ने धुल दिया मेरा चेहरा। ****** तुम नहीं हो तो नहीं हो फिर भी, एक उम्मीद पे ज़िन्दा हूं मैं। ****** मौत से है फासिला बस दो कदम, ज़िंदगी बस दो कदम ही रह गई। ****** मधुर चांदनी यौवन तेरा, चंद्र बना है दर्पण तेरा, मुझको नेह-निमंत्रण देता, स्मृति का आलिंगन तेरा। ****** हर सुबह रोज़ रात के नखरे, नींद खुलती नहीं कभी मेरी। ****** पुराने मशवरों के साथ ज़िंदगी मेरी, एक उम्मीद पर निकलती रही। ****** मोहब्बत मय नहीं तो और क्या है, भला चंगा था दीवाना बनाया। ****** आज आंखों में ख़्वाब बोएंगे, सुबह उठ्ठेगें उजाला लेकर। ****** तुम्हारे लफ़्ज़ों की चाशनी में, ये इश्क अपना पिघल रहा है। ****** ह

एक बेबस कवि का दर्द

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राहुल भैया सुनो हमारी, राजनीति तलवार दुधारी, काट लिए 10 साल मौज तुम, अब देखो जनता की बारी। किया केजरी को फिट तुमने, राजनीति में आया पिटने, जनता लेगी हर हिसाब अब, पाप किए हैं तुमने जितने। जनता को बौड़म समझा था, अब देखो उसकी होशियारी। महंगाई आकाश पे धर दी, और वादों से झोली भर दी, ऐसे कब तक चलेगा भैया, गैस सिलेंडर बारह कर दी। नाकों चने चबाए हैं सब, याद तुम्हारी कारगुज़ारी। मेहनतकश का दर्द ना जानो, खुद को सबसे अव्वल मानो, ऐसे मुल्क कहां चलता है, सच्चाई मानो ना मानो। जनता के आंसू हैं ताक़त, ना समझो उसको लाचारी। खाने का अधिकार दिया है, मनरेगा में काम दिया है, क्या तुमसे पहले भारत में, इस माटी ने प्राण लिया है। तुमसे पहले भी भारत में, भरे पेट जनता डक्कारी। नब्ज़ नहीं भारत की समझे, स्वप्न लोक में अपने उलझे, ये सतरंगी देश हमारा, हर दिक्कत जनता से सुलझे। जाओ अपना काम करो अब, तुम्हें मुबारक हो बेकारी।

मौन ही खुद बोलता है

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उसने जीवन की डोर बुनी, मन ही मन में इक बात चुनी, जब देश की जर्जर हालत पर, भारत मां की आवाज़ सुनी। था युवा बहुत, थे स्वप्न बड़े, रस्ते पथरीले और कड़े, थी राह कठिन, असमंजस भी, कुछ बंधन थे सामने खड़े। लेकिन संकल्प वो अविजित था, फिर भी नौका मझधार चुनी। परिवार अडिग था ज़िद पर यूं, वो नहीं समझ पाया कि क्यूं, वो चला अकेला था पथ पर, जीवन साथी का साथ ही क्यूं। फिर हार के उसने हां कर दी, उसकी हर आशा गई भुनी। वह विवश मातृ के आगे था, उलझा-उलझा बस तागे सा, वो मान गया फिर परिणय पर, जब कि विवाह से भागे था। पर राष्ट्र प्रेम सर्वोपरि था, जीवन साथी ने बात सुनी। जीवन साथी था एक ओर, था राष्ट्र प्रेम की थामे डोर, जीवन संगिनी ने मुक्त किया, था कष्ट बहुत पीड़ा भी घोर। था निकल पड़ा वो मतवाला, वो राष्ट्र धर्म का एक मुनि। जीवन संगिनी ने जाना था, बाधक नहीं होगी ठाना था, वो नहीं मिले फिर बरसों से, यूं लक्ष्य सुराज का पाना था। दोनों के मग थे हुए