उम्र जब अधपकी सी अमिया थी थोड़ी खट्टी सी थोड़ी मिट्ठी सी.. बस उसी वक्त मैंने फागुन में हाथ में ले के गुलाबी गुलाल तुम्हारे चेहरे पे हौले मल दिया था यूं कहके यूं 'धत्त' मुस्कराईं थीं मुझको जन्नत यूं नज़र आई थी हो गए होंगे कुछ पचीस बरस अब तो यादों से भी मिटा हूं मैं तब से फागुन उदास रहता है गुलाबी अब गुलाल होता नहीं ना ही वो 'धत्त' सुना फिर मैनें तुम इस जहां में हो..या दूर कहीं ? क्या तुम्हें अब भी वही आदत है 'धत्त' कहने की...भाग जाने की....
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