फिर भी मुंतज़िर है नज़र
मौत से ज़िंदगी दोस्ती कर गई,
कितनी ख़ामोश सी जुस्तजू कर गई।
मैं ना समझा कि क्या उम्र का दौर है,
उम्र कागज़ पर अपना सफर कर गई।
लाख ये बिजलियां यूं ही गिरती रहें,
ये तबाही नई ख़ास क्या कर गईं?
और ये आशियां गुनगुनी धूप में,
ख़ाक होता नहीं, धूप क्या कर गई!
क्यों ना ये बेबसी फूटकर रो पड़े,
बेखुदी ज़ख़्म सीने पे फिर कर गई।
मैंने देखा और समझा तुम्हें वाइज़ो,
अक्ल तेरी खुराफात क्या कर गई।
मैंने यूं तो कभी कुछ कहा ही नहीं,
बेज़ुबानी मेरी शोर क्या कर गई।
और अब इक 'मधुर' बात तुम भी सुनो,
ज़िंदगी से मोहब्बत खुशी कर गई।
बेहत खुब
ReplyDelete