घायल शब्द
घायल शब्दों की व्यथा प्रिये,
पृष्ठों में कहां समाती है,
आंसू में चाहे सृष्टि रचो
पीड़ा तो हृदय दुखाती है।
पूछो भी तुम अंतर्मन से,
विश्वास कोई जो छलता है,
पाओगे उत्तर मात्र एक,
वेदना, घाव सहलाती है।
देखें क्या छिपता है इसमें,
दर्पण है ये मेरे मन का,
पर हाय विवशता यह कैसी,
हर एक बात दिख जाती है।
क्यूं उकताया हूं स्वयं यहां,
क्या दुविधा है इन भावों में,
मैं अंकित हूं पर कहां प्रिये
आलेखन नियति मिटाती है।
जीवन प्रलोभनों में सिमटा,
विस्तार नहीं है तो क्या है,
दिग्भ्रमित विश्व है मौन खड़ा,
दुविधा छिप कर मुस्काती है।
है दीप, तिमिर का शत्रु मगर,
दोनों में स्नेह परस्पर है,
जब होय भोर दिनकर निकले,
बाती दुख से बुझ जाती है।
मैं तो अश्रु छिपाए थे,
मैं 'मधुर' नहीं पत्थर मित्रों,
ये अश्रु छलक जाते हैं तब,
पीड़ा जब गीत रचाती है।
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