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Showing posts from 2016

अनजाना राही

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जब भी उदासियों के बियाबान में रहे, हरदम तुम्हारी याद के जुगनू भी संग रहे। लम्होें के टूटने की सदा कुछ ना कर सकी, हम तो फकत उम्मीद के पहलू में ही रहे। तुमने तो दर्द ख़्वाब में महसूस भर किया, हम तो उसी के आशियां में उम्र भर रहे। कैसे कोई सुनाता 'मधुर' की कोई ग़ज़ल, जो लोग साथ थे उसी में डूब कर रहे।

अंखियन देखी बात कहूं मैं

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अंखियन देखी बात कहूं मैं, दुख में सुख का भार सहूं मैं, मेरी परिणित सिर्फ यही है, दो पाटन के बीच रहूूं मैं। आंसू की ज्वाला उकसाती, भेद सभी चेहरे पर लाती,  ये मेरे अंतर की पीड़ा, विष दंतों सी मुझे सताती। इसकी नियति तोड़ चला हूं, पीड़ा में मुस्कान बहूं मैं। अंखियन देखी बात कहूं मैं, दुख में सुख का भार सहूं मैं। दीपक बिन आंगन है सूना, जैसे आंसू का ख़त छूना, शेष रह गई मेरी पीड़ा,  हृदय का आवास नमूना। प्रिय तेरे आहट में खोकर, अंदर-अंदर रोज़ ढ़हूं मैं। अंखियन देखी बात कहूं मैं, दुख में सुख का भार सहूं मैं। मैं रो कर भी रो ना पाया, खुद को खो कर खो ना पाया, ये मेला भी अजब तमाशा,  मैं गा कर भी गा ना पाया। बस तेरी सांसों के सुर में, सारे अपने गीत कहूं मैं। अंखियन देखी बात कहूं मैं, दुख में सुख का भार सहूं मैं। तेरी मेरी सांसे थोड़ी, दुनिया समझे नहीं निगोड़ी,  खर्च यहीं सब हो जानी हैं, सांसे भी कब किसने जोड़ी। फिर भी तृष्णा बहुत बड़ी है,

जीवन

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टुकड़ों में नीलाम हो गया मेरा जीवन, अपना था गुमनाम हो गया मेरा जीवन। इसकी निधियां संचित कर पलकों पर रखीं, स्मृति को बेकाम कर गया मेरा जीवन। मुझको जब भी मिला दे गया ताप अनूठा, माघ-पूस का घाम हो गया मेरा जीवन। ना जानें क्यों रह रह कर समझाता जाता, मास्साब की डांट हो गया मेरा जीवन। जब भी रजत रश्मियों से मिलकर  के आता, बिन देवों का धाम हो गया मेरा जीवन।

कड़वा सच

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मेरी बातें ख़्वाब नहीं हैं, हर झुकना आदाब नहीं है, अपनी तो आदत है कोशिश, हार कभी भी मात नहीं है।

भाई तुम्हें बरस कई बीते...भूला नहीं हूं मैं

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'मधुर' का जीना अगर तुमको बुरा लगता खुदा, छीन लेता ज़िंदगी, क्यों बांह कर दी यूं जुदा, वो मेरा साया नहीं था, जिस्म की धड़कन था वो, ज़िंदगी की राह में बस एक ही था हमज़ुबां।

अधूरा सच

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मुझको यह विश्वास नहीं है। तुमको मेरी आस नहीं है। मेरे गीत कहेंगे सब कुछ, यद्यपि उनमें सांस नहीं है। सुधियों ने जो गीत रचाया, आंसू का उपहास नहीं है। कलियों की मुस्कान है गायब, ये कोई मधुमास नहीं है। आंसू में पीड़ा जब घोलूं, कैसे कह दूं प्यास नहीं है। हर कल्पना अधूरी सी है, जब तक प्रियतम पास नहीं है। विरह वेदना क्यों कम होगी, ये कोई परिहास नहीं है। 'मधुर' तुम्हारी बात हमेशा, हृदय का संत्रास नहीं है।

शै

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जब तलक ज़िंदगी नहीं जी थी, मुझको मालूम ना था क्या शै है, आज दो पल को ज़िंदगी जी ली, खुद से लड़ करके थक गया हूं मैं। 

दर्द समझो तो सही

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आंख से अश्कों की बातें पूछिएगा एक दिन, रास्ते के दर्द को पहचानिएगा एक दिन। मैं नज़र आ जाऊंगा चुपके से ख़्वाबों की तरह, शाम को सूरज की किरणें देखिएगा एक दिन। खो रहा हूं आज सब कुछ सोचकर कुछ इस तरह, कह रहा हूं खुद से सब कुछ पाइयेगा एक दिन। पाएंगे मंज़िल सभी लेकिन ज़रा कुछ देर से, रफ्ता-रफ्ता लुत्फ-ए-हसरत देखिएगा एक दिन। 'मधुर' पन्नों पर ना तू अपनी निशानी छोड़ दे, कह के सबसे अब खुमारी देखिएगा एक दिन।

मुकाबला

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हमने भी कश्तियों को तूफां में उतारा है, ऐ मौज समंदर का सीना भी हमारी है। क्या ख़ाक लुत्फ लेंगे साहिल के तमाशाई, जिसने हर इक लम्हा, डर डर के गुज़ारा है। देखेंगे आज हम भी तेवर तलातुम के, कह देंगे बाज़ुओं में ये ज़ोर हमारा है। अब क्या कहेंगे बातें, तुमसे 'मधुर' बताएं, जब दर्द बढ़ चला है, टूटा ये किनारा है।

सिलवटें

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या खुदा किरदार पर इंसान के हैं सिलवटें, सब ज़ुबानी कह रही हैं बेज़ुबां सी सिलवटें। इल्म की गठरी को ढोना जुर्म हो जाता है तब, देख ही पाएं अगर बस रोटियों की सिलवटें। हो चुकी कब की सयानी आशियां में बेटियां, ये बताती बाप के माथे पर आई सिलवटें। बंद कमरों से सुनहरी धूप की जानिब चलो, और मिटाओ ख़्याल के पर्दों की सारी सिलवटें। जुर्म भी तारीफ के काबिल अगर हो जाए तो, देखिए इंसानियत की आबरू पर सिलवटें। वो जो अपनी लाश पर खुद फातिहा पढ़ता रहा, 'मधुर' होगा, साथ में माथे पे लेके सिलवटें।

फिर भी मुंतज़िर है नज़र

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मौत से ज़िंदगी दोस्ती कर गई, कितनी ख़ामोश सी जुस्तजू कर गई। मैं ना समझा कि क्या उम्र का दौर है, उम्र कागज़ पर अपना सफर कर गई। लाख ये बिजलियां यूं ही गिरती रहें, ये तबाही नई ख़ास क्या कर गईं? और ये आशियां गुनगुनी धूप में, ख़ाक होता नहीं, धूप क्या कर गई! क्यों ना ये बेबसी फूटकर रो पड़े, बेखुदी ज़ख़्म सीने  पे फिर कर गई। मैंने देखा और समझा तुम्हें वाइज़ो, अक्ल तेरी खुराफात क्या कर गई। मैंने यूं तो कभी कुछ कहा ही नहीं, बेज़ुबानी मेरी शोर क्या कर गई। और अब इक 'मधुर' बात तुम भी सुनो, ज़िंदगी से मोहब्बत खुशी कर गई।

अंतिम इच्छा..

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मौन ही जब सार्थक स्वीकृति बने और जीवन, मृत्यु की अनुकृति बने.. तब विभा ना भेजना कुछ व्यर्थ तुम.. चाहता हूं प्राण की आहुति बने..

घायल शब्द

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घायल शब्दों की व्यथा प्रिये, पृष्ठों में कहां समाती है, आंसू में चाहे सृष्टि रचो  पीड़ा तो हृदय दुखाती है। पूछो भी तुम अंतर्मन से, विश्वास कोई जो छलता है, पाओगे उत्तर मात्र एक, वेदना, घाव सहलाती है। देखें क्या छिपता है इसमें, दर्पण है ये मेरे मन का, पर हाय विवशता यह कैसी, हर एक बात दिख जाती है। क्यूं उकताया हूं स्वयं यहां, क्या दुविधा है इन भावों में, मैं अंकित हूं पर कहां प्रिये आलेखन नियति मिटाती है। जीवन प्रलोभनों में सिमटा, विस्तार नहीं है तो क्या है, दिग्भ्रमित विश्व है मौन खड़ा, दुविधा छिप कर मुस्काती है। है दीप, तिमिर का शत्रु मगर, दोनों में स्नेह परस्पर है, जब होय भोर दिनकर निकले, बाती दुख से बुझ जाती है। मैं तो अश्रु छिपाए थे, मैं 'मधुर' नहीं पत्थर मित्रों, ये अश्रु छलक जाते हैं तब, पीड़ा जब गीत रचाती है।

सच इश्क का

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तुम्हारे इश्क के लहज़े में चाशनी है बहुत... हमारे पास महज़ आशिकी, और कुछ भी नहीं...

जवाब हाजिर है

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तुम पूछती हो कौन हूं मैं... नाम क्या है शहर क्या है.. गांव क्या है क्य़ा बताऊं क्या छिपाऊं राज़ सारे जानती हो किवाड़ों पर हृदय के नाम पट्टी है तुम्हारी तुम्हें मैं क्या बताऊं कौन हूं मैं.....

कटु सत्य है प्रेम का

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तुम नदी हो मुझे पता था कि इठलाओगी कभी कभी यूं अकेले मे ही बलखाओगी खुद से फुरसत मिले, समझ लेना मुकद्दर क्या है..जान जाओगी मैं समंदर ही सही खारा सा मेरे सीने से लिपट जाओगी जाओ बेफिक्र रहो मेरे इंतज़ार से अब मैं तुम्हारा था तुम्हारा हूं चाहे बीते कितने भी बरस

माज़ी जो बिखरा बिखरा है

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उनींदी रात के साये..मुझे अक्सर सताते हैं वो मेरे पास भी है, दूर भी..मुझको बताते हैं. ********************************************* इश्क़ का नमक चख लिया तुमने... इश्क़ की चाशनी में अब डूबो.... ********************************************* ख्वाब देखे थे आंख भर भर कर... सुबह उट्ठे तो ख्वाब टूट गए... आंख में चुभ रहीं हैं सब किरचें... अपने मरहम भी सारा लूट गए.. ********************************************* साज़िशें साहिल पे थीं, लहरों से रखता क्या गिला, एक नासमझी थी मेरी, दुश्मनों से गले मिला. ********************************************* सांस दर सांस उम्र घटती रही.. तुम तज़ुर्बे की बात ले बैठे ********************************************* इंतज़ार, अपनी इंतेहा तो बता.. मुंतज़िर हैं मेरी आंखे किसी सहर के लिए ********************************************* ज़िंदगी मुझसे तू नाराज़ सही, मुझको आदत है तेरे गुस्से की.. ********************************************* अब तो प्यादे भी सब

तुम्हारे नाम की स्याही

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मैंने माज़ी के बासी टुकड़े तले वहीं किनारे उसी मेज के पास एक अल्फाज़ दबा रखा था सोचा देखूं तुम्हारी यादों को वक्त के साथ कुछ हुआ तो नहीं मैंने देखा वो सुनहरा अल्फाज़ आज मुरझाया सा लगा था मुझे उसे उठा के हथेली पे रखा बहुत निहारा, आंख भर आई तुम्हारे नाम की स्याही  अभी भी गीली है....

जब मैं बन जाऊंगा सितारा इक दिन

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उम्र की धूप खिल चुकी है अब जीना जीना वो उतरी आंगन में थोड़ी ही देर जवानी अब तो शाम आगाज़ करने वाली है धूप की जगह छांव ले लेगी छांव की जगह अंधेरा होगा उस अंधेरे में अनबुझी हसरत जुगनू की तरह टिमटिमाएगी चाहने वाले दिलासा देंगे ये भी बोलेंगे कि ये हसरतें अब उनकी हैं मैं अंधेरे में कहीं दूर निकल जाऊंगा हसरतें जुगनू से बदलेंगी लिबास फिर जगह लेंगी सितारों की तरह आंसू बन कर वो सितारे हरदम आंख में उसकी झिलमाएंगे

वक़्त

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सुबह सुबह चुपके से थोड़ी सी धूप मल देती है मेरे चेहरे वक्त का गुलाल आइना देखता हूं तो उम्र याद नहीं रहती कितने बरस बीते.. कितने सावन चंद नए रिश्तों और पुराने रिश्तों का हिसाब  सुलझता ही नहीं उम्र थोड़ी है या बहुत कुछ भी ये जो रिश्ते हैं  परेशान किया करते हैं कभी कभी तो ये उम्मीद भी दम तोड़ देती है क्या ऐसा हो सका है जो गया हो फिर मिला हो ना रिश्ते...ना उम्र..ना ही वो धूप जो मल देती थी मेरे चेहरे पर  वक्त का गुलाल..

मां

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तुम्हारे होने पे छोटी खुशी, बड़ी थी मुझे.. जो तुम नहीं हो तो खुशियों का कोई मायने नहीं.. तुम्हारे चेहरे में मां क्या बला का जादू था...

पांच पैसे की ज़िंदगी

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पांच पैसे में ज़िंदगी की खुशी किसी ने देखी हो बताए मुझे जब भी बचपन में नन्हें हाथों में पांच पैसे का सिक्का आता था जाने क्या ख्वाब बुना करते थे दिल की आवाज़ सुना करते थे आज हाथों में नोट हैं लेकिन वो खुशी अब नही मिलती फिर भी पांच पैसे से जुदाई का सबब किश्तों अब चुका रहा हूं मैं ज़िंदगी अब रेहन है बैंको में आरज़ू पर भी ब्याज़ लगता है पांच पैसे का वक्त अच्छा था किश्त की ज़िंदगी से बेहतर था चाहता हूं कि वक्त फिर बदले उम्र घट जाए..बच्चा हो जाऊं फिर से हाथों में आए वो सिक्का फिर उसी ज़िंदगी में लौट जाऊं