सज़ा

तुमने खुद को दी सज़ा क्यूं ये बताओ, प्रिय हृदय के भेद खोलो ना छिपाओ। तुम भले ही झूठ को सच बोलते हो किन्तु भावों ने बता दी बात सारी, प्रेम नयनों में छिपी इक रोशनी है बुझ नहीं सकती है तुम कितना बुझाओ। तुमने खुद को दी सज़ा क्यूं ये बताओ... मानता हूं पग नहीं मग पर सधे हैं औऱ अंतर्द्वन्द भी मिटते नहीं हैं, मन की सीमा से परे कुछ स्वप्न सुंदर टिमटिमाते से दिए हैं मत बुझाओ। तुमने खुद को दी सज़ा क्यूं ये बताओ... भोर की पहली किरण ने ये जताया कब विकल्पों से भला जीवन चला है, चेतना के गर्भ से उगता है अंकुर प्रेम समझो, प्रेम भाषा मत मिटाओ। तुमने खुद को दी सज़ा क्यूं ये बताओ...