मित्र, जो चला गया
आज सुबह सूर्य ने फिर आंख खोली,
और भर दी रौशनी से जग की झोली,
किन्तु कुछ जगहों पर पसरा है अंधेरा,
दीप के शव पर ना सूरज खेल होली ।
हां बहुत उन्मुक्त से दिखते हो दिनकर,
मृत्यु पर दीपक के तुम रोओ भी क्यूं कर,
भोर में शव साधना अच्छी नहीं है,
क्षोभ ऐसा कि हुए जाते हो जर्जर ।
किन्तु कुछ जगहों पर पसरा है अंधेरा,
दीप के शव पर ना सूरज खेल होली ।
सूर्य तुम भी खुश नहीं हो जो हुआ है,
आंख की कोरों को लाली ने छुआ है,
आंख की कोरों को लाली ने छुआ है,
सच कहो षडयंत्र में शामिल नहीं थे,
या कि बुझते दीप पर अब दुख हुआ है।
किन्तु कुछ जगहों पर पसरा है अंधेरा,
दीप के शव पर ना सूरज खेल होली ।
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