हर लोक में..एक सच
देख दर्पण तिमिर फूट
कर रो पड़ा,
और बोला दबे स्वर
में ये क्या हुआ,
मैंने क्या कुछ ना
समझा था खुद को मगर,
एक मैं था विवश कांच
में खो पड़ा।
रो पड़ी वेदन अश्रु
बन कर तभी,
घाव सब खुल गए चीर
करके वसन,
देखते-देखते क्या से
क्या हो गया,
हिचकियां ले के
सांसों ने मांगा कफ़न।
एक कोने में मैं मौन
साधक बना,
पहले मन में हंसा और
फिर रो पड़ा।
जैसे पागल बना विश्व
फिरता रहा,
पत्थरों को भी छोड़ा
नहीं भूल से,
हर जगह सिर झुका
करके पूजन किया,
खुश किया देवता को
कभी फूल से।
किन्तु अपनी विवशता
पे वो देवता,
दम्भ झूठा सजाए हुए
रो पड़ा।
जब कभी धूप आंगन में
उतरी नहीं,
बदलियां झूम कर
छायीं आकाश में,
और उन्मुक्त जीवन का
प्रतिबिम्ब बन,
प्रेम की चाह उतरी
हर इस सांस में।
एक कोने में मैं दीप
बनकर प्रिये,
खुद जलाकर शलभ फूट
कर रो पड़ा।
यूं हृदय में कोई
पीर उठती नहीं,
किन्तु पीड़ा समेटे
हुए जब गगन,
यूं फफक रो पड़ा बीच
आषाढ़ में,
और सांसे लिए
रोक,ठिठका पवन,
मैं ‘मधुर’ अनकहा दर्द सहते हुए,
हिचकियां ले के
स्तब्ध सा रो पड़ा।
गहन अभिवयक्ति......
ReplyDeleteशुक्रिया सुषमा जी...आभार
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