माज़ी...
आरजू लम्हों की बेरंग किताब,
जुस्तजू सांसों का उल्टा हिसाब,
ज़िंदगी इब्तिदा थी ख्वाबों की,
मौत थी असलियत का हिजाब।
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मौत से जब भी कभी डर सा लगा है दोस्तों,
कब्र अपनी नाप के हर रोज़ आ जाता हूं मैं।
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दर्द के दश्त में बेजान सा चेहरा लेकर,
कौन घर में मेरे आया मेरा चेहरा लेकर।
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मैं हज़ारों बार खुशियों के बाज़ारों में बिका,
दर्द के बेजान बुत पर और बोली मत लगा।
ऐ सबा हालात पर मेरे अभी ना मुस्करा,
मैं बहुत टूटा हूं..दिल पर और नश्तर मत लगा।
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मैं संबंधों की छाया में हां अक्सर यूं ही छला गया,
दे स्नेह निमंत्रण थोड़ा सा हर दीप मुझे ही जला गया।
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तमाम उम्र हादसों के शहर में गुज़री,
कहीं पे उनके फ़साने हों ज़रूरी तो नहीं।
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यूं पलट कर मुस्करा देना वो बार-बार,
मर जाएंगे, इतना बता मरना है कितनी बार।
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आंसू के आबरू की कैसे करें हिफाज़त,
वो ही खुशी या ग़म में बेघर हुआ हमेशा।
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