जब भी घर जाऊंगा इक काम करके आऊंगा कुछ उसूलों को मैं सरयू में बहा आऊंगा। कहते हैं सरयू में श्रीराम ने त्यागा था शरीर मैं भी उकताए हुए स्वप्न को तज आऊंगा।
वो एक शाम समंदर के किनारे तुम्हारे करीब कुछ पलों में सिमट गई थी कहीं आज फिर दिल में तमन्ना उठी वो एक शाम फिर आंखों में सज़ा रखी है बीते लम्हों को कुरेदा फिर से हाथ में आईं मेरे दो बातें एक अफसोस जब बिछड़ा था समंदर से मैं एक तसल्ली कि मेरे पास तुम हो
बहुत दिनों से कोई ज़ख्म मेरे दिल के किसी कोने में रह-रह के रिसता है दर्द ने ली है पनाह आंसुओं के समंदर के किनारे सोचता हूं मगर अब सोच नहीं पाता वक्त की किताब के सारे पन्ने उघड़े हैं बिखर रहे हैं हालातों की आंधी में एक मै था जो बिखर रहा है धीरे-धीरे ये मेरा विस्तार है.... या खोता जा रहा हूं खुद को मैं..